गजल
सावन की सांझ में ना यूं नज़रें चुराईये
मेरे करीब आईये मुझको बुलाइये
होती है शर्म गैर से अपनों से क्या गिला
चहरा-ए-चाँद से ज़रा चिलमन उठाइये
जितने हसीं हैं आज हम उतने कभी ना थे
इस बांकपन को देखने पलकें उठाइये
सरमाया है हुस्न का तो कद्रदान इश्क है
आँचल में भर करोगी क्या इसको लुटाइये
भूला हूँ ज़िन्दगी में सभी आपके सिवा
दिवाना हूँ मैं आपका यूँ ना भुलाइये
हद हो गई है सब की, बस एक आरजू
चूंघट उठाओ या मेरी मैय्यत उठाइये।