Akaal अकाल (गंगा की लहरें)-Kavi Abdul Jabbar (GL-47)

 अकाल

 घात कर गया फिर से सावन खेतों से खलिहान से 

दूर हो गया पानी प्यासे पशुधन और इन्सान से

 इन्हें बचाओ, पुण्य कमाओ, देकर दान महान से 


 बिन पानी बिन घास के गौधन गया रे मौत की बाहों में 

 जीते जी मर गये मवेशी तड़पे नीर की चाहों में 

 अनबोले प्राणी के पग-पग सूरज पिघले राहों में 

 गोकुल का कान्हा बन कोई ले ले इन्हें पनाहों में

 गोपालक के गाँव गली घर लगते हैं श्मशान से 


टूट गया नाता खेतों से मौसम का हरियाली से 

टूट गया सपना किसान का जीवन की खुशहाली से 

टूट गया नहरों से नाता पानी पाली-पाली से

छूट गया दामन दानों का जीवन की रखवाली से 


फाड दिया धरती का सीना सखा देख दरारों ने 

मुरझाया माली वीराने बसते देख बहारों में 

 नैना बरसे पर ना बरसे बदरा सावन भादों में 

 ऐसा रूठा रब हमसे के असर नहीं फरियादों में 

बूंघट भूखा पनघट सूखा है सारे बैजान से


हमें लड़ाई लड़नी है सूखे से हर हाल में

कोई भूख से मर ना जाये भाई पड़े अकाल में

दान का दीप जलाये रखना आशा के चौपाल में

भामाशाह बन चमकोगे तुम प्रताप की ढ़ाल में

लड़ो लड़ाई इस अकाल से दिल जान से